तस्वीर में अवांछित - 1 PANKAJ SUBEER द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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तस्वीर में अवांछित - 1

तस्वीर में अवांछित

(कहानी - पंकज सुबीर)

(1)

‘‘रंजन जी, आ रहे हैं ना आप ?’’ उधर से फ़ोन पर आयोजक ने शहद घुली आवाज़ में पूछा।

‘‘नहीं भाई साहब मैं पहले ही कह चुका हूँ रविवार को मैं कार्यक्रम नहीं लेता। एक ही दिन मिलता है परिवार के साथ बिताने को। उस पर भी पिछले दो माह से रविवार को भी व्यस्तता बनी रही है इसलिए अब कुछ आराम चाहता हूँ।’’ रंजन ने विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया।

‘‘रंजन जी हम आपका नाम प्रचार में उपयोग कर चुके हैं’’ आयोजक ने दयनीय स्वर में कहा।

‘‘मगर मैंने तो आपको स्वीकृति नहीं दी थी।’’ रंजन ने कुछ सपाट स्वर में कहा।

‘‘देखिए रंजन जी अगर मानदेय को लेकर .......’’ कहते कहते आयोजक ने बात को बीच में ही छोड़ दिया।

‘‘नहीं नहीं वैसी कोई बात नहीं है, आप जितना दे रहे हैं मैं उतना ही लेता हूँ, मगर समस्या परिवार की ही आ रही है। सप्ताह के छः दिन सुबह सात से रात दस तक काम में बीतते हैं। एक दिन तो परिवार को भी चाहिये कि नहीं ?’’ रंजन ने इस बार थोड़े ठीक से स्वर में कहा।

‘‘ठीक है रंजन जी, वैसे आप आना चाहें तो शाम छः बजे भी निकलकर यहां आठ तक पहुंच सकते हैं’’ उधर से आयोजक ने एक और प्रयास किया।

‘‘मैं कह चुका हूँ भाई साहब, फिर भी यदि कुछ होता है तो मैं आपको फ़ोन कर लूंगा’’ कहते हुए रंजन ने फ़ोन काट दिया।

एक रविवार ही तो मिलता है बड़ी मुश्किल से और अगर उसको भी बाहर वालों को दे दो तो फिर परिवार के लिए बचेगा ही क्या ? घर के लोग भले ही कुछ ना कहते हों मगर मन में तो सभी के रहता होगा कि वो एक दिन तो घर पर रहे, उन लोगों के साथ। पिछले दो महीनों से लगातार ऐसी व्यस्तता बनी हुई है कि वह चाहकर भी रविवार को घर नहीं रुक पा रहा है। कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है कि उसे जाना ही पड़ता है।

मगर आज वह घर पर है इसलिए क्योंकि शायद आज को लेकर उसने अपनी प्राथमिकता पहले से ही तय कर ली थी कि आज उसे घर पर रहना है। घर....? दरवाज़ों और खिड़कियों से भरी दीवारों पर बिछी हुई छत के अंदर की वह दुनिया जहाँ एक स्त्री है जो सुबह सपाट और भाव विहीन चेहरे से उसे विदा करती है और रात को जब पुनः मिलती है तब भी लगभग वैसी ही होती है। जब रात को मिलती है तो धीरे-धीरे, कुछ-कुछ बोलती भी जाती है, घर के बारे में, आस पड़ोस के बारे में, मोहल्लेके बारे में। उसका ये धीरे-धीरे बोलना सूचनाप्रद होता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कमरे में रखा टीवी भी धीमी-धीमी आवाज़ में कुछ-कुछ बोलता रहता है, देश के बारे में, दुनिया के बारे में। लगभग एक साथ ही उसे देश दुनिया से लेकर मोहल्ले और घर तक की सूचनाएँ मिलती हैं मगर वह इन सूचनाओं को निस्पृह रूप से ही लेता है। जो घट चुका है, बीत चुका है उसके बारे में केवल जाना ही जा सकता है, उसमें कुछ संशोधन तो किया नहीं जा सकता, तो क्यों फ़िज़ूल में मानसिक श्रम किया जाए। प्रतियोगिता परीक्षाओं में बैठने की उम्र निकल चुकी है इसलिए धीमे-धीमे स्वर में मिल रही ये सारी सूचनाएँ अगर सामान्य ज्ञान से संबंधित हों तब भी उसके काम की नहीं हैं।

उसी घर में एक या शायद दो बच्चे भी हैं जो संभवतः उसी के हैं। संभवतः इसलिए क्योंकि इन बच्चों को सुबह घर से जाते समय भी गहरी नींद में डूबा हुआ देखता है और रात को जब घर लौटता है तब भी। कभी इन बच्चों से उसका परिचय नहीं हो पाया इसीलिए उसने संभवतः का उपयोग किया। कभी यदा-कदा जब वो रविवार को घर पर रुक जाता है तो अपने प्रति एक अपरिचित भाव पाता है इन एक या शायद दो बच्चों की नज़रों में। कभी-कभी उसे लगता है कि उसके रुकने के कारण कुछ बोझिल हो गया है घर का माहौल। फ़िर कभी लगता है कि नहीं ऐसा कुछ नहीं है घर का माहौल तो रोज़ ही ऐसा रहता होगा, आज वो रुका है तो उसे ही ऐसा लगा रहा है। बाहर की दौड़ती ज़िंदगी से एक ठहरी हुई ज़िंदगी के साथ दिन बीत रहा है कुछ तो अंतर होगा ही। कभी कभी उसने प्रयास भी किया एक या शायद दो बच्चों के साथ कुछ परिचय बढ़ाने का मगर कहावत है कि ताली दोनों हाथों से बजती है एक से नहीं, उस पर भी यदि वह एक हाथ भी पूरे मन से प्रयास नहीं कर रहा हो तो और भी ज्यादा मुश्किल है। अक्सर जब वह किसी दिन घर रुक जाता है तो देखता है कि आसपास से गुज़रते उन एक या शायद दो बच्चों का कद कुछ बढ़ गया है, कभी शायद बालों की स्टाइल कुछ बदली हुई नज़र आती है। कभी जब घर रुकता है तभी ऐसा लगता है रोज़ नहीं लगता क्योंकि रोज़ तो वो बच्चे सोए होते हैं और सोए हुए के बारे में अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

अक्सर एक रविवार को जब वह घर रुक जाता है तो अगले एक दो माह के लिए निश्चिंत हो जाता है, एक अपराध बोध हट जाता है मन से कि वह घर को समय नहीं दे पाता। फिर ये अपराध बोध एक दो माह बाद ही जन्म लेता है। आज भी वह इसी अपराध बोध के चलते यहाँ पर है। यहां पर, मतलब घर पर, जहाँ एक स्त्री है जो चुपचाप कुछ न कुछ लगातार कर रही है उसकी उपस्थिति से सर्वथा निस्पृह। रविवार को जब वह घर होता है तो यह स्त्री उसे धीमे-धीमे स्वर में कुछ भी जानकारी नहीं देती। शायद रविवार को उसके पास अधिक सूचनाएँ होती भी नहीं हैं।

आज भी वह स्त्री लगातार कुछ न कुछ किये जा रही है। कुछ न कुछ सामान लिए हुए उसके सामने से गुज़र जाती है, कभी कुछ उसके सामने भी रख जाती है। वो एक या शायद दो बच्चे भी बीच-बीच में इधर से उधर निकलते हुए दिखाई देते हैं। उनसे एकाध बार उसकी नज़रें भी मिलती हैं नज़रें मिलते ही वह मुस्कुराने का प्रयास करता है या शायद मुस्कुराता भी है। मगर उस तरफ से कुछ उत्साह वर्द्धक प्रत्युत्तर नहीं मिलता। वह ड्राइंग रूम में उसी प्रकार बैठा रहता है, कुछ लिखता हुआ, कुछ पढ़ता हुआ, अपनी उपस्थिति का एहसास करवाता हुआ कि मैं हूँ यहाँ। आज का ये दिन मैंने तुम सबको दिया है। रविवार को उस प्रकार ड्राइंग रूम में बैठे हुए उसे लगता है कि जैसे वह भूल से किसी ग़लत स्टेशन पर उतर गया मुसाफ़िर है। जो प्लेटफार्म की बैंच पर बैठा है जहाँ रेलें आ-जा रही हैं, मुसाफ़िर आ-जा रहे हैं, खोमचे वाले आ-जा रहे हैं, उसकी उपस्थिति से लगभग निस्पृह ये सभी आ-जा रहे हैं। कभी-कभी सामने से गुज़रती किसी रेल में एकाध कोई परिचित चेहरा दिखाई भी देता है और वह पहचानने का प्रयास भी करता है किंतु उससे पहले ही वह रेल गुज़र जाती है। ग़लत स्टेशन पर उतरे हुए के साथ यही होता है प्लेटफार्म की बैंच पर बैठा वह यही सोचता है कि कोई देखता क्यों नहीं कि वो बैठा है यहाँ पर। सब क्यों गुज़र रहे हैं इस प्रकार उसकी उपस्थिति से बेख़बर मानो वो है ही नहीं वहां पर। अक्सर भूल जाता है कि वह एक ग़लत स्टेशन पर है जहाँ पर उसे नहीं होना था। ग़लत जगह पर उपस्थित वस्तु में और शून्य में कोई फ़र्क नहीं होता। ऐसा इसलिए क्योंकि वह उपस्थित वस्तु किसी शून्य को भर नहीं पा रही है और इसीलिए वह स्वयं ही शून्य में गिनी जाएगी।

घर में बैठा वह भी देखता रहता है उस स्त्री और उन एक या दो शायद दो बच्चों को। एक या शायद दो इसलिये क्योंकि वे दोनों बच्चे लड़कियां हैं और दोनों ही उसके सामने से एक ही तरह से गुज़रती हैं। वह फ़र्क ही नहीं कर पता दोनों में और इसीलिए वह कुछ निश्चित नहीं है कि दो लड़कियां हैं या एक ही है। थोड़ा बहुत फ़र्क नजर आने के कारण ही उसे लगता है कि ये दो ही हैं। वे एक शायद दो बच्चे जो लड़कियां हैं उन्हें वह देखता रहता है सामने से गुज़रते हुए और अनुमान लगाता रहता है कि कैसी थीं ये पिछली बार, जब उसने देखा था इनको। आज जब वह रविवार को घर पर है तो शायद आज भी यही सब कुछ करेगा। बीच में शायद दोपहर को कुछ देर के लिए सो भी जाएगा और फिर शाम होगी रात होगी और फिर सुबह हो जाएगी और रवाना हो जाएगा वो उस ग़लत स्टेशन से फिर पहले वाली दुनिया में।

‘‘और ये आप सबके बीच में ये कौन खड़ा है ? ’’ अवसर जाने पहचाने चेहरों के बीच कोई अपरिचित चेहरा नज़र आते ही रंजन की उंगली उस चेहरे पर रूक जाती थी। ‘‘ये तेरी कोटा वाली बुआ के ननदोई हैं ये भी आए थे शादी में ’’ अक्सर ऐसे ही किसी रिश्ते का ज़िक्र कर देता था बताने वाला मगर रंजन उस रिश्ते का, उस चेहरे का उस तस्वीर में होना स्वीकार नहीं कर पाता था। कि इस तस्वीर में मां हैं, बाबूजी हैं, तीनों बुआएँ हैं फूफा हैं, चाचा चाची हैं, सब एक जैसे चेहरों की तस्वीर है और उनके बीच में ठुंसा हुआ है ये। कभी कभी उसे हैरानी भी होती थी कि किस तरह से लोग आकर ठंस जाते हैं किसी की भी फैमिली तस्वीर में। शर्म नहीं आती है उन्हें ? कभी-कभी पूछ भी लेता था वो माँ से ‘‘तुमने इनको मना क्यों नहीं किया खड़े होने से कि ये हमारी फैमिली की तस्वीर खिंच रही है आप ज़रा दूर हो जाइये’’। उसकी बालसुलभ ईर्ष्या को भांप कर हंस पड़ती माँ ‘‘बेटा तस्वीर और ज़िंदगी में वांछित को रख लेना और अवांछित को हटा देना इतना आसान नहीं होता।’’ तब का बालमन वांछित और अवांछित जैसे भारी शब्दों के अर्थ भले ही नहीं जान पाता था फिर भी वो ये तो समझ ही लेता था कि कहीं न कहीं कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर होता है जो हमारे ना चाहने के बाद भी होता है। और वो केवल इसीलिए होता है क्योंकि वो चाहता है कि वो हो। जैसे उस तस्वीर में वो बुआ के ननदोई अगर वो खुद सोच लेते कि ये तो इनकी फैमिली तस्वीर है इसमें मेरा क्या काम, तो वो उस तस्वीर में नहीं होते। उस स्थिति में वह तस्वीर भी एक मुक़म्मल फैमिली तस्वीर होती। मगर ऐसा हुआ कहां ? दाल-भात के बीच किरकिराते हुए कंकर की तरह वे थे, हैं और रहेंगे भी।

तस्वीरें अक्सर अवांछितों को लिए-लिए फिरती हैं, शायद तस्वीरें स्वयं भी मुक्ति पाना चाहती हों इन अवांछितों से ज़िंदगी की तरह। जैसा वह सोचता है शायद वैसा ही दूसरे भी सोचते हों, जितने भी लोग उस तस्वीर में हैं शायद वे सब भी यही सोचते हों कि अगर ये एक बुआ का ननदोई नहीं होता तो कितना अच्छा होता, ये एक फैमिली तस्वीर बनकर इनलार्ज होकर उस तस्वीर में शामिल सभी के घरों की दीवारों पर लटकी रहती। दीमकें खा जातीं, फ्रेम सड़ जाता, बुरादा भी टपकने लगता, फिर भी ये टंगी रहती, तब तक, जब तक एक पीढ़ी नहीं गुज़र जाती। तस्वीर भी यही सोचती होगी कि काश ये बुआ का नन्दोई एन मौक़े पर आकर बीच में नहीं ठुसा होता।

अक्सर ही पड़ोस का वह व्यक्ति जिसका नाम राधेश्याम, घनश्याम, रमेश या दिनेश जैसा कुछ है उसे रविवार को घर पर पाकर चला आता है। वह आदमी शायद एकमात्र व्यक्ति है जो उस ग़लत स्टेशन पर बिताए गए रविवार में उससे बोलता है, बतियाता है, लेकिन वह भी इतना ज़्यादा बोलता है, कि आख़िरकार उसे उससे भी ऊब होने लगती है। इसी बीच वह स्त्री बीच-बीच में आकर चाय या कुछ खाने-पीने का सामान किसी नियम की तरह रखती जाती है। वह राधेश्याम या दिनेश या पता नहीं क्या नाम वाला आदमी उस दौरान उस स्त्री से कुछ संवाद स्थापित करने का लिजलिजा सा प्रयास भी करता है, प्रत्युत्तर में वह स्त्री केवल मुस्कुराकर चली जाती है।

क्रमश....